रफतार न्यूज डेस्क: आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी प्रकाशानंद जी महाराज कहते हैं कि पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, माता लक्ष्मी ने राजा बलि को सबसे पहले राखी बांधी थी। एक बार राजा बलि ने 100 यज्ञ पूरा करके स्वर्ग पर आधिपत्य का प्रयास किया, इससे इंद्र डर गए। वे भगवान विष्णु के पास गए और उनसे रक्षा का निवेदन किया। तब भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण किया।
वे वामन अवतार में राजा बलि के पास गए और भिक्षा में तीन पग जमीन मांगी। बलि ने उनको तीन पग देने का वचन दिया। तब भगवान विष्णु ने दो पग में पूरी पृथ्वी नाम दी। यह देखकर राजा बलि समझ गए कि यह वामन व्यक्ति कोई साधारण नहीं हो सकता है। उन्होंने अपना सिर आगे कर दिया। यह देखकर भगवान विष्णु राजा बलि से प्रसन्न हुए और उनसे वर मांगने को कहा। साथ ही बलि को पाताल लोक में रहने को कहा।
तब राजा बलि ने कहा कि हे प्रभु! पहले आप वचन दें कि जो वह मांगेंगे, वह आप उनको प्रदान करेंगे। उनसे छल न करेंगे। भगवान विष्णु ने उनको वचन दिया। तब बलि ने कहा कि वह पाताल लोक में तभी रहेंगे, जब आप उनके आंखों के सामने हमेशा प्रत्यक्ष रहेंगे। यह सुनकर विष्णु भगवान दुविधा में पड़ गए। उन्होंने सोचा कि राजा बलि ने तो उनको पहरेदार बना दिया।
अपने वचन में बंधे भगवान विष्णु भी पाताल लोक में राजा बलि के यहां रहने लगे। इधर माता लक्ष्मी विष्णु भगवान का इंतजार कर रही थीं। काफी समय बीतने के बाद भी नारायण नहीं आए। इसी बीच नारद जी ने बताया कि वे तो अपने दिए वचन के कारण राजा बलि के पहरेदार बने हुए हैं। माता लक्ष्मी ने नारद से उपाय पूछा, तो उन्होंने कहा कि आप राजा बलि को भाई बना लें और उनसे रक्षा का वचन लें।
तब माता लक्ष्मी ने एक महिला का रूप धारण किया और राजा बलि के पास गईं। रोती हुई महिला को देखकर बलि ने कारण पूछा। उन्होंने कहा कि उनका कोई भाई नहीं है। इस पर बलि ने उनको अपना धर्म बहन बनाने का प्रस्ताव दिया। जिस पर माता लक्ष्मी बलि को रक्षा सूत्र बांधीं और रक्षा का वचन लिया। दक्षिणा में उन्होंने बलि से भगवान विष्णु को मांग लिया।
इस प्रकार माता लक्ष्मी ने बलि को रक्षा सूत्र बांधकर भाई बनाया, साथ ही भगवान विष्णु को भी अपने दिए वचन से मुक्त कराया।
आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी प्रकाशानंद जी महाराज कहते हैं कि द्वापर युग में शिशुपाल राजा का वध करते समय भगवान श्री कृष्ण के बाएं हाथ से खून बहने लगा तो द्रोपदी ने तत्काल अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर उनके हाथ की अंगुली पर बांध दिया। कहा जाता है कि तभी से भगवान कृष्ण द्रोपदी को अपनी बहन मानने लगे और सालों के बाद जब पांडवों ने द्रोपदी को जुए में हरा दिया और भरी सभा में जब दुशासन द्रोपदी का चीरहरण करने लगा तो भगवान कृष्ण ने भाई का फर्ज निभाते हुए उसकी लाज बचाई थी। मान्यता है कि तभी से रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाने लगा जो आज भी बदस्तूर जारी है। श्रावण मास की पूर्णिमा को भाई-बहन के प्यार का त्योहार रक्षाबंधन मनाया जाता है।
आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी प्रकाशानंद जी महाराज कहते हैं कि पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भद्रा में राखी न बंधवाने के पीछे एक कथा प्रचलित है। त्रेता युग में लंका के राजा रावण ने अपनी बहन से भद्रा के समय ही राखी बंधवाई थी। भद्राकाल में राखी बाधने के कारण ही रावण का सर्वनाश हुआ था। इसी मान्यता के आधार पर जब भी भद्रा लगी रहती है उस समय बहनें अपने भाइयों की कलाई में राखी नहीं बांधती है। इसके अलावा भद्राकाल में भगवान शिव तांडव नृत्य करते हैं इस कारण से भी भद्रा में शुभ कार्य नहीं किया जाता है।
आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी प्रकाशानंद जी महाराज कहते हैं कि एक अन्य मान्यता के अनुसार भद्रा शनिदेव की बहन है। भद्रा शनिदेव की तरह उग्र स्वभाव की हैं। भद्रा को ब्रह्मा जी ने श्राप दिया कि जो भी भद्राकाल में किसी भी तरह का कोई भी शुभ कार्य करेगा उसमें उसे सफलता नहीं मिलेगी। भद्रा के अलावा राहुकाल में भी किसी तरह का शुभ कार्य करना वर्जित माना गया है। शास्त्रों में रक्षाबंधन का त्योहार भद्रा रहित समय में करने का विधान है।
आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी प्रकाशानंद जी महाराज के अनुसार राखी को सही समय पर सही विधि से बांधना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले भाई को पूर्व दिशा की तरफ मुंह करके बैठाना चाहिए। इसके बाद बहन को अच्छे से पूजा की थाली सजानी चाहिए। पूजा की थाली में चावल, रौली, राखी, दीपक होना चाहिए। इसके बाद बहन को भाई के अनामिका उंगली से टीका कर चावल लगाने चाहिए। अक्षत अखंड शुभता को प्रदर्शित करते हैं। उसके बाद भाई की आरती उतारनी चाहिए और उसके जीवन की मंगल कामना करनी चाहिए। कई जगह बहनें इस दिन अपने भाई की सिक्के से नजर भी उतारती हैं।