Web Desk-Harsimranjit Kaur
असत्य से सत्य की मार्ग पर चलकर महाज्ञानी बनने वाले महाऋषि वाल्मीकि का जीवन प्रेरणादायक है। जो क्रूरता से दया, सबलता दृढ़ता की ओर जाने वाला है। महृर्षि वाल्मिकि ने संस्कृत में महाकाव्य रामायण की रचना के साथ श्रीराम के संपूर्ण जीवन को चरितार्थ किया और लव-कुछ के संरक्षक गुरु भी रहे।
महर्षि वाल्मीकि ( Valmiki Jayanti) का जन्म आश्विन मास की शरद पूर्णिमा के दिन हुआ था। महर्षि वाल्मीकि के जन्म के बारे में कोई स्पष्ट प्रमाण तो नहीं है लेकिन पौराणिक मान्यताओं के अनुसार उनका जन्म महर्षि कश्यप और अदिति के नौवें पुत्र वरुण और उनकी पत्नी चर्षणी के पुत्न के रुप में माना जाता है। भृगु ऋषि इनके बड़े भाई थे। इस साल 2021 में वाल्मीकि जयंती 20 अक्टूबर को है।
धार्मिक कथाओं के अनुसार एक पक्षी के वध पर जो श्लोक महर्षि वाल्मीकि के मुख से निकला था वह परमपिता ब्रह्मा जी की प्रेरणा से निकला था और यह बात स्वयं ब्रह्मा जी ने उन्हें बताई थी, उसी के बाद ही उन्होने रामायण की रचना की थी। माना जाता है कि रामायण वैदिक जगत का सर्वप्रथम काव्य था। रामायण की रचना महर्षि वाल्मीकि ने संस्कृत भाषा में की थी और इसमें कुल चौबीस हजार श्लोक हैं।
महाऋषि वाल्मिकी की जयंती और शरद पूर्णिमा का सनातन धर्म में बहुत खास स्थान है। आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहा जाता है। इस दिन आसमान से अमृत वर्षा होती है। इस साल शरद पूर्णिमा 19 से 20 अक्टूबर 2021, तक मंगलवार को पड़ रहा है। शरद पूर्णिमा को रास पूर्णिमा या कोजागरी पूर्णिमा भी कहा जाता है। शरद पूर्णिमा के दिन व्रत रखकर चांद की पूजा की जाती है और खीर का प्रसाद चढ़ाकर खुले आसमान के नीचे रातभर रखा जाता है। पुराणों के अनुसार द्वापर युग में इसी पूर्णिमा के दिन भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ने महारास रचाया था इस दिन गोपियों के संग रास रचाया था और मान्यता है कि शरद पूर्णिमा की रात को चन्द्रमा से अमृत की वर्षा होती है। यह अमृत चन्द्रमा की 16 कलाओं में से धरती पर बरसता है।
संस्कृत के आदि कवि और महाकाव्य रामायण के रचियेता महृर्षि वाल्मीकी आदि काल के महान कवियों में गिने जाते है।आश्विनी माह की पूर्णिमा के दिन वाल्मीकि जयंती मनाई जाती है ।उत्तर भारत में इस दिन का अपना महत्त्व है।जानते हैं कैसे रत्नाकर से महर्षि वाल्मीकि बने और रामायण जैसे महान ग्रंथ की रचना कर दी।
महर्षि वाल्मीकि जयंती पर उनका जीवन परिचय
त्रेता युग में जन्मे वाल्मीकि का जन्म ऋषि कश्यप और अदिति के नौंवे पुत्र प्रचेता (वरुण) की पहली संतान के रुप में हुआ था। उनकी माता का नाम चर्षणी और भाई का नाम भृगु था। उनका नाम रत्नाकर पड़ा। कहा जाता है कि एक बार वाल्मिकी जी तपस्या में बैठे थे कठोर तप के बाद उनके शरीर पर दीमकों ने घर बना लिया । जब वो तपस्या से बाहर आए तो दीमक से बाहर निकलने के कारण उन्हे वाल्मिकी कहा गया है। दीमको के घर को वाल्मिकी कहते हैं। महर्षि वाल्मीकि की याद में इस दिन को वाल्मीकि जयंती के रूप में मनाया जाता है। महर्षि वाल्मीकि का पूरा जीवन बुरे कर्मों बीतने के बाद उसे त्यागकर अच्छे कर्मों और भक्ति की राह पर चलने का मार्ग प्रशस्त करता है। इसी महान संदेश को लोगों तक पहुचाने के लिए वाल्मीकि जयंती मनाई जाती है। इस मौके पर कई जगह शोभायात्रा भी निकाली जाती है और इस दिन उनके प्रतिमा स्थल पर भंडारे का आयोजन भी किया जाता है। साथ ही विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों के माध्यम से वाल्मीकि की कथा का प्रचार-प्रसार भी किया जाता है।
एक और कथा के अनुसार इन्हें बचपन में एक नि:संतान भील-भिलनी ने चुरा लिया था जिससे इनका लालन-पालन भील प्रजाति में हुआ। इसी कारण, वह बड़े हो कर डाकू रत्नाकर बनें और उन्होनें जंगलों में अपना काफी समय व्यतीत किया। महर्षि वाल्मीकि वैदिक काल के महान ऋषि हैं और धार्मिक ग्रंथों के अनुसार वाल्मीकि ने कठोर तप के बाद महर्षि पद पाया था। महर्षि वाल्मीकि खगोल विद्या और ज्योतिष शास्त्र के भी प्रकांड पंडित थे।
महृर्षि वाल्मीकि को नारद मुनि ने करवाया सत्य का ज्ञान
महर्षि वाल्मीकि का पहले नाम रत्नाकर था और लूटपाट करना उनका पेशा था। राहगीरों को लूटकर वह अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। उस समय लोग उनको रत्नाकर डाकू के नाम से पहचानते थे। एक बार निर्जन वन में भ्रमण करते हुए उनको नारद मुनि मिले। डाकू रत्नाकर ने उनको लूटने का प्रयत्न किया। तब महर्षि नारद ने उनसे पूछा कि तुम यह निम्न कोटी का काम क्यों करते हो? इस पर डाकू रत्नाकर ने जवाब दिया कि वह अपने परिवार का पेट पालने के लिए यह काम करते हैं। इसके बाद महर्षि नारद ने उनसे प्रश्न किया कि, जो अपराध तुम अपने परिवार का पेट पालने के लिए करते हो क्या उस पाप में तुम्हारा परिवार भी भागीदार बनने के लिए तैयार है। यह सुनकर रत्नाकर अचंभे में पड़ गए। इसके बाद महर्षि नारद ने डाकू रत्नाकर से कहा कि जिस परिवार के लिए तुम यह पापकर्म कर रहे हो, वह यदि इसमें भागीदार बनना नहीं चाहता है तो फिर किसके लिए यह गलत काम कर रहे हो? इतना सुनते ही डाकू रत्नाकर ने महर्षि नारद के चरण पकड़ लिए और तपस्या का मार्ग अपना लिया और वन में जाकर समाधि में लीन हो गए। जिस समय महर्षि नारद ने रत्नाकर को सत्य का ज्ञान करवाया था उस समय उन्होंने रत्नाकर को राम नाम के जप का उपदेश भी दिया था। लेकिन उच्चारण की दिक्कत के चलते वह राम-राम का जाप नहीं कर पा रहे थे तब महर्षि नारद ने राम-राम की जगह मरा-मरा का जाप करने की उनको आज्ञा दी। इस तरह डाकू रत्नाकर सच्चे दिल से मरा-मरा का जाप करते हुए महर्षि वाल्मीकि बन गए।
महृर्षि वाल्मिकी इस तरह बनें डाकू से महाज्ञानी
धार्मिक कथाओं के अनुसार एक पक्षी के वध पर जो श्लोक महर्षि वाल्मीकि के मुख से निकला था एक दिन ब्रह्ममूहूर्त में वाल्मीकि ऋषि स्नान, नित्य कर्मादि के लिए गंगा नदी को जा रहे थे। वाल्मीकि ऋषि के वस्त्र साथ में चल रहे उनके शिष्य भारद्वाज मुनि लिए हुए थे। मार्ग में उन्हें तमसा नामक नदी मिलती है। वाल्मीकि ने देखा कि इस धारा का जल शुद्ध और निर्मल था। वो भारद्वाज मुनि से बोले – इस नदी का जल इतना स्वच्छ है जैसे कि किसी निष्पाप मनुष्य का मन। आज मैं यही स्नान करूँगा।जब ऋषि धारा में प्रवेश करने के लिए उपयुक्त स्थान ढूंढ रहे रहे थे तो उन्होंने प्रणय-क्रिया में लीन क्रौंच पक्षी के जोड़े को देखा।प्रसन्न पक्षी युगल को देखकर वाल्मीकि ऋषि को भी हर्ष हुआ। तभी अचानक कहीं से एक बाण आकर नर पक्षी को लग जाता है। नर पक्षी चीत्कार करते, तड़पते हुए वृक्ष से गिर जाता है।मादा पक्षी इस शोक से व्याकुल होकर विलाप करने लगती है.ऋषि वाल्मीकि यह दृश्य देखकर हतप्रभ रह जाते हैं. तभी उस स्थान पर वह बहेलिया दौड़ते हुए आता है, जिसने पक्षी पर बाण चलाया था। इस दुखद घटना से क्षुब्ध होकर वाल्मीकि ऋषि के मुख से अनायास ही बहेलिये के लिए एक श्राप निकल जाता है। वह परमपिता ब्रह्मा जी की प्रेरणा से निकला था और यह बात स्वयं ब्रह्मा जी ने उन्हें बताई थी।
उसी के बाद ही उन्होने रामायण की रचना की थी। माना जाता है कि रामायण वैदिक जगत का सर्वप्रथम काव्य था।रामायण की रचना महर्षि वाल्मीकि ने संस्कृत भाषा में की थी और जिसमें कुल चौबीस हजार श्लोक है। कथाओं के अनुसार श्री राम के परित्याग के बाद महर्षि वाल्मीकि जी ने ही मां सीता को अपने आश्रम में पनाह दे कर उनकी रक्षा की थी और देवी सीता के दोनों पुत्रों लव और कुश को ज्ञान भी प्रदान किया था।
असत्य से सत्य की मार्ग पर चलकर महाज्ञानी बनने वाले महाऋषि वाल्मिकि का जीवन प्रेरणादायक है। जो क्रूरता से दया, सबलता दृढ़ता की ओर जाने वाला है। महृर्षि वाल्मिकि ने संस्कृत में महाकाव्य रामायण की रचना के साथ श्रीराम के संपूर्ण जीवन को चरितार्थ करने के साथ देवी सीता के आश्रयदाता बने और लव-कुछ के जन्म के गवाह और संरक्षक गुरु भी रहे। वाल्मिकि ने अपने कठोर तप और परिश्रम , ज्ञान से अपने जीवन के बुरे कर्मों को धूल दिया था और आखिर में महाऋषि के रूप में संसार में प्रसिद्ध हुए।